रोज़ा पार्क्स धुन की जिद्दी महिला थी। वह अपने फैसले पर अडिग रहने वाली साहसी
और शक्ति की सराहनीय तस्वीर थी।
ये पेशे से एक डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाली साधारण महिला थीं पर दूसरी और
इनका जीवन सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर समाज को बदलना था जो ये बखूबी जानती थी की
उसमे ये हिम्मत थी कि वो की इस काम को कर सकती हैं। इतिहास में ऐसे लोगो का ज़िक्र
कम ही मिलता है जिन्होंने समानता की लड़ाई लड़ते हुए समाज को नई दिशा दी हो ।
आज जानने का प्रयास करते हैं| आख़िर क्या थी इस साधारण महिला की असाधारण कहानी,
ये उस समय की बात है जब श्वेत-अश्वेत लोग भेदभाव प्रेरित होकर अलग-अलग बैठते थे। बात एक शाम की है जब रोज़ा पार्क्स 1 दिसंबर
1955 को अपने काम से वापस घर लौट रही थीं। रोज़ा बस में चढ़ते ही अश्वेत नागरिकों के
लिए आरक्षित सीट पर बैठ गईं। दरअसल, उस दौर (समय) में मॉन्टगोमेरी सिटी Code लागू था
जिसके तहत सार्वजनिक बसों में अश्वेत और श्वेत अमेरिकी नागरिकों के लिए अलग-अलग निर्धारित
सीट आरक्षित की गई थी। बस में निर्देशिक सूचना बोर्ड के ज़रिये बस दो भागों में बांटी
हुई थी, अश्वेत अमेरिकी (अफ्रीकी-अमेरिकी लोग) पीछे बैठते थे जबकि श्वेत अमेरिकी लोग
आगे बैठते थे।
अमेरिका में उस समय अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव किया जाता था, जिसके चलते वे पीछे बने
अश्वेत लोगो के लिए आरक्षित सीट पर बैठने से पहले, वे आगे से बस में चढ़कर टिकट लेते
थे और फिर उसके बाद पीछे के दरवाज़े से बस में आकर बैठते थे | हमेशा की तरह रोज़ा उस दिन भी बस में सफर कर रही थीं । अब बस में धीरे-धीरे श्वेत यात्रियों
की संख्या बढ़ने लगी । बस पूरी तरह भरने के परिणाम स्वरुप श्वेत यात्री अभी भी बस में
बैठ नहीं पाए है, ऐसे में ड्राइवर ने बस रोकी और निर्देशिक सूचना बोर्ड (साइन बोर्ड)
को एक सीट पीछे कर दिया।
इसकी वजह से बस में बैठे चार अश्वेत यात्रियों से दबावपूर्ण जगह और सीट छोड़ने के लिए कहा । हालांकि बस कोड के अनुसार, यात्री
से रंग के आधार पर ड्राइवर किसी को भी सीट छोड़ने के लिए नहीं कह सकता था, लेकिन ड्राइवर
इस बात की परवाह किए बिना अश्वेत लोगों को जबरदस्ती सीट से उठा देते थे । जो अश्वेत लोग इस बात का विरोध करते थे ड्राइवर
या तो उन्हें बस में बिठाने से इंकार कर देते या फिर पुलिस की मदद से 3 अश्वेत लोगो
को बस से बाहर करवा देते है |
रोजा पार्क्स अब अपनी सीट से नहीं उठीं, जबकि ड्राइबर के कहने पर रोज़ा के साथ
बैठे तीन यात्रियों ने सीट छोड़ दी थी । ड्राइवर ने गुस्से में कहा तुम खड़ी क्यों
नहीं होती हो। इस पर रोज़ा का उत्तर था कि ‘मुझे नहीं लगता कि मुझे खड़ा होना चाहिए।’
रोज़ा की इस बात में एक विरोध का स्वर था। जिसके बाद ड्राइवर ने रोज़ा को सीट
से खड़ा करने के लिए बहुत दबाव बनाया और प्रयत्न किए लेकिन रोज़ा अपनी बात पर कायम
रही और अपनी सीट नहीं छोड़ी। अब ड्राइवर ने पुलिस को फोन कर बुलाया और रोज़ा पार्क्स
को गिरफ्तार कराया और दूसरे दिन शाम को रोजा को ज़मानत मिली।
इस घटना की वजह से अमेरिका की सबसे पुरानी और बड़ी नागरिक अधिकार संस्था एनएएसीपी
(NAACP) (नेशनल एसोशियेशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपल) के स्थानीय अध्यक्ष ई.डी
निक्सन ने मॉन्टगोमेरी की बसों का बहिष्कार करने की योजना बनाई, जिसके बाद इस बात को
अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय के लोगों में इस घटना को फैलाया गया।
5 दिसंबर को अश्वेत लोगों को यानी रोज़ा की कोर्ट में पेशी के दिन मॉन्टगोमेरी
बसों का विरोध करने के लिए कहा गया और लोगों से कहा गया कि या तो वे पैदल चलकर जाएं
या कैब लें । उस दौर में अमेरिका एक बड़े बदलाव की तैयारी में चल रहा था ।
पेशी के दिन स्थानीय समर्थकों ने रोजा का कोर्ट में पहुंचने पर तालियां बजाकर
ज़ोरदार स्वागत किया। 30 मिनट चली सुनवाई में, रोज़ा को दोषी करार दिया गया और उन पर
10 डॉलर का जुर्माना साथ ही 4 डॉलर की कोर्ट फीस वसूली गई।
लेकिन ये इस लड़ाई का अंत नहीं हुआ था बल्कि ये तो एक शुरुआत थी अपने अधिकारों
की जो एक छोटे से विरोध से बड़ी चिंगारी लगाकर छोड़ गई थीं। मॉन्टगोमेरी बस बहिष्कार
इसकी एक छोटी से बानगी थी। ये विरोध तक़रीबन 1 साल चला (381 दिनों) तक चला। इसके चलते
अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों ने बसों का बहिष्कार करना और बसों से सफ़र करना बंद कर दिया।
अब लोग कारपूल कर या पैदल चलकर कर ऑफिस जाने लगे।
यक़ीन जानिये इस आंदोलन में कितनी पवित्रता होगी, समझ कितनी साफ़ रही होगी और
मक़सद कितना मज़बूत रहा होगा तभी तो यह आंदोलन 1 साल चला था।
आंदोलन का असर - आंदोलन बड़ा होता चला गया इसका अंदाजा इसी बात के लगाया जा
सकता है की शहर में अब बसें तो बहुत थीं लेकिन वह सब वीरान पड़ी थी | इस आंदोलन और बहिष्कार
को खत्म करने के लिए कई पर्यास और कोशिशें की गईं इसके चलते आंदोलन के मुख्य नेता मार्टिन
लूथर किंग जूनियर और ई.डी. निक्सन के घर को जला कर खाक कर दिया गया। जिन अश्वेत लोगो के पास टेक्सी थी उनके बीमा रद्द
कर दिए गए और कानून तोड़ने पर उन्हें गिरफ्तार किया जाने लगा।
आख़िरकार 13 नवंबर 1956 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया की अब बस को रंग के आधार
पर बांटना असंवैधानिक था | दूसरी और अदालत का लिखित आदेश मॉन्टगोमेरी पहुंचने के बाद
ये बहिष्कार और आंदोलन 20 दिसंबर 1956 को समाप्त हो गया | इस बहिष्कार और आंदोलन को
इतिहास में नस्लीय अलगाव के खि़लाफ सबसे सफल और बड़े जन आंदोलनों में से एक माना गया
।
रोज़ा पार्क्स इस घटना से सिविल राइट्स मूवमेंट (Civil Rights Movements) का
प्रतीक बनकर उभरीं। हालांकि इस आंदोलन से रोज़ा पार्क्स को बाद में कई मुश्किलों का
सामना करना पडा। जिसमे उन्हें डिपार्टमेंटल स्टोर की नौकरी से निकाल दिया गया साथ ही
उनके पति की भी नौकरी चली गई यही नहीं उन्हें मॉन्टगोमेरी में कहीं भी नौकरी नहीं मिली।
आखिरकार उन्हें ये शहर छोड़कर जाना पड़ा।
अपने जीवनकाल में इस घटना के बाद रोज़ा पार्क्स को कई पुरस्कारों से सम्मानित
किया गया उन्हें राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भी प्रेजीडेंटल मेडल ऑफ फ्रीडम (President
Medal of Freedom) से सम्मानित किया और टाइम पत्रिका (Times Magazine) ने सन 1999 में
उन्हें 20 वीं सदी की 25 सबसे प्रभावशाली और शक्तिशाली महिला की सूची में रखा गया ।
1992 में, रोज़ा पार्क्स ने अपनी आत्मकथा ‘रोज़ा पार्क्स: माई स्टोरी’ लिखी। उन्होंने इस किताब में अपने जीवन से जुड़े भेदभावों के बारे में खुलकर बयां किया। रोज़ा की कलम यहीं नहीं थमी। उन्होंने 1995 में ‘क्वाइट स्ट्रेंथ’ नाम की एक और किताब लिखी। जिसमें रोज़ा ने अपने जीवन के ख़ास लम्हो और धर्म पर अपने विश्वास के बारे में विचार लिखे ।
एक दिन रोज़ा से स्कूल की टीचर ने पूछा था। तुम क्यों सवाल पूछने के लिए परेशान
हो जाती हो तो रोज़ा ने कहा था इसलिए परेशान हो जाती हूँ कि मुझे बराबरी चाहिए। ख़्याल
और विचार सबके मन में होते हैं मगर फ़ैसले का दिन कोई एक होता है और आपको निर्णय लेना
होता है उस दिन आपको स्टैंड लेना होता है और अपने और अपने जैसे लाखों के लिए रोज़ा
पार्क्स बन जाना होता है।
अपनी आत्मकथा ‘रोज़ा पार्क्स: माई स्टोरी’ में पार्क्स ने एक मिथक को खारिज करते हुए बताया कि
लोग ऐसा मानते हैं कि उन्होंने सीट से उठने पर इंकार कर दिया क्योंकि वह काम से लौटने
पर थक गई थीं जबकि ऐसा नहीं था। उन्होंने लिखा कि ‘मैं शारीरिक रूप से नहीं थकी थी,
मैं बूढ़ी नहीं थी। हालांकि कुछ लोगों के मन में मेरी छवि एक बूढ़े व्यक्ति की थी पर
असल मैं में सिर्फ 42 साल की थी। मैं थकी जरूर थी इसलिए की असमान भेदभाव होने से और
खराब बर्ताव से’ |
रोज़ा पार्क्स एक महिला के रूप में नस्लीय भेदभाव को समाप्त करने वाली, असमानता
को दूर करने वाली, अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक आवाज़ थीं जो आज भी ज़िंदा है,
जो आज भी सुनाई देती है और कल भी सुनाई देती रहेगी,
शायद कल किसी और रोज़ा पार्क्स
के रूप में…
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