प्रधानमंत्री का झूठ को सच बनाएं रखने में ‘अरे’ और ‘रे’ की भाषाई तहज़ीब ।
‘अरे’ से शुरू होकर ‘रे’ पर ख़त्म हो रहे वाक्यों ने प्रधानमंत्री की भाषा को नई गरिमा दी है। तहज़ीब की किताब में ‘रे’ का जो मुक़ाम है वो ‘अरे’ का नहीं है। ‘अरे’ के इस्तमाल के कई संदर्भ हो सकते हैं।’ अरे’ में आह्वान भी है और ललकार भी। क्रोध भी। रे’ के भी हैं लेकिन सुन ओ सखी रे के अंदाज़ से तो प्रधानमंत्री का मतलब ही नहीं था। उनके ‘रे’ में दुत्कार है। तिरस्कार है। ‘रे’ सड़क की भाषा में तू-तड़ाक के परिवार का है। भारत के प्रधानमंत्री को जनता ने कितना प्यार दिया लेकिन बदले में उन्होंने कैसी भाषा दी है। रामलीला मैदान में उनकी भाषा का लहज़ा नफ़रत तिरस्कार और झूठ से भरा था।
उनका भाषण सिर्फ़ भाषा की तहज़ीब के लिहाज़ से जनता को अपमानित नहीं करता बल्कि तथ्यों के लिहाज़ से भी करता है। कई बार समझना मुश्किल हो जाता है कि जिन फ़ैसलों को लेकर हर बार चार सौ सीटें मिलने और विराट हिन्दू एकता के मज़बूत होने की बात कही जाती है उन्हीं फ़ैसलों के बचाव में प्रधानमंत्री की भाषा तू-तड़ाक और अरे-रे की क्यों हो जाती है। क्या यही विराट हिन्दू एकता की सार्वजनिक तहज़ीब होगी? क्या इस विराट हिन्दू एकता के बच्चे घरों में अरे और रे बोलेंगे?
ग़नीमत है प्रधानमंत्री की भाषा मन की बात में जाकर शालीन हो जाती है जैसी एक चाहे जाने वाले लोकप्रिय नेता की होनी चाहिए। मगर राजनीति में उनके समर्थकों ने जिस भाषा को गढ़ा है और जब उसकी झलक प्रधानमंत्री की भाषा में दिखती है तो अच्छा नहीं लगता। अपने आलोचकों को मां बहन की गालियाँ देने वाले कहीं एक दिन घरों में माँ बहन या पिता के साथ न बोलने लगें। एक अच्छा नेता अपने समर्थक समुदाय के बीच शालीनता के मानक को भी गढ़ता है। प्रधानमंत्री ध्वस्त कर देते हैं।
“मैंने कभी धर्म और जाति के आधार पर पूछा क्या”? तो जवाब है कई बार पूछा है।अभी तो पिछले हफ़्ते झारखंड में प्रधानमंत्री उपद्रवियों को उनके कपड़े से पहचानने की बात कह रहे थे। उसी एक चुनाव की सभा में अमित शाह ख़ुद को बनिया कह रहे थे। बहुत पीछे जाएँगे तो प्रधानमंत्री ख़ुद की जाति से वोटर का आह्वान करते पाए जा सकते हैं।
रामलीला के ही भाषण में नागरिकता क़ानून के विरोधियों को वे आसानी और चालाकी से पाकिस्तान परस्त घोषित करते हैं। जब वे कहते हैं कि इन्हें पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और आतंकवाद का विरोध करना चाहिए कि नहीं। ये लोग नागरिकता क़ानून का विरोध कर रहे हैं और प्रधानमंत्री उन्हें आतंकवाद के समर्थक होने के कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। शायद वे अपनी इस बात से उस विराट हिन्दू एकता की समझ बुद्धि के समाप्त हो जाने का एलान भी कर रहे हैं जो उनके हिसाब से उतना ही सोचेगी जो वे कह देंगे। दुखद है।
अगर इस बात का इशारा हाथों में तिरंगा उठाए मुसलमानों की तरफ़ है तो यह सिर्फ़ एक छोटा सा तथ्य है। 2008 में न सिर्फ़ छह हज़ार मुफ़्तियों ने आतंक के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पर दस्तखत किए थे बल्कि दो सौ जगहों पर सभाएँ हुई थीं। 2015 में आतंकी संगठन आई सीस की पहुँच जब भारत तक पहुँची तो उसके विरोध में 70 से अधिक शहरों में सभाएँ की थीं। दारुल उलूम और अन्य मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने इसका नेतृत्व किया था।
उसी सभा में प्रधानमंत्री ने एक बार नहीं कहा कि देश के ग़द्दारों को गोली मारो सालों को नारे लगाने वाले उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता नहीं हो सकते। उनके नेता और कार्यकर्ता तिरंगा लेकर गोली मारने वाले नारे लगा रहे हैं। जामिया को आतंक का अड्डा बताते हैं। प्रधानमंत्री इन बातों पर चुप रहे और पुलिस की हिंसा और बर्बरता पर भी।
रामलीला मैदान में प्रघानमंत्री ने लोगों से कहा कि देश की दोनों सदनों का सम्मान कीजिए। खड़े होकर सम्मान कीजिये। बस मैदान में जोशीला माहौल बन गया। लोग खड़े होकर मोदी मोदी करते रहे। किसी को भी लगेगा कि क्या मास्टर स्ट्रोक है।
लेकिन लोकसभा और राज्य सभा में जब यह बिल लाया गया तो चर्चा में प्रधानमंत्री ने भाग लिया? जवाब है नहीं। क्या चर्चा के वक्त प्रधानमंत्री सदन में थे ? जवाब है नहीं। क्या प्रधानमंत्री ने बिल पर हुए मतदान में हिस्सा लिया? जवाब है नहीं। क्या आप यह बात जानते थे या मीडिया ने आपको यह बताया है? जवाब है नहीं। क्या मीडिया आपको बताएगा? तो जवाब है नहीं।
संसद के बनाए क़ानूनों का खुद उनकी पार्टी कई बार विरोध कर चुकी है। संसद के बनाए क़ानून की न्यायिक समीक्षा होती है। उसके बाद भी विरोध होता है। सुप्रीम कोर्ट भी अपने फ़ैसलों की समीक्षा की अनुमति देता है।
प्रधानमंत्री के भाषण में कई झूठ पकड़े गए हैं। उन्होंने कहा नागरिकता रजिस्टर की सरकार में कोई चर्चा नहीं हुई। यह झूठ था क्योंकि कई बार सदन में और बाहर गृहमंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि नागरिकता रजिस्टर लेकर आ रहे हैं।
उनकी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में कहीं नीचे किनारे लिखा है। आप जानते हैं कि जनता तक मीडिया घोषणा पत्र की बातों को कितना पहुँचाता है। अमित शाह ने अभी तक नहीं कहा कि बग़ैर चर्चा के ही वे संसद में बोल गए कि NRC लेकर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने एक और झूठ कहा कि कोई डिटेंशन सेंटर नहीं बना है। इस साल जुलाई और नंवबर में ही उनकी सरकार ने संसद में बताया है कि असम में छह डिटेंशन सेंटर बने हैं और उनमें कितने लोगों को रखा गया है। संसद में जवाब की कापी सोशल मीडिया में घूम रही है। आप चेक कर सकते हैं कि आपके हिन्दी अख़बारों और चैनलों ने बताने की हिम्मत की है या नहीं।
सारा आधार यही है कि जनता को अंधेरे में रखो और झूठ बोलो। प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान में सरासर झूठ बोला है। यह झूठ विराट हिन्दू एकता के खड़े हो जाने का अपमान करता है। झूठ और नफ़रत की राजनीति की बुनियाद पर हिन्दू गौरव की रचना करने वाले भूल गए हैं कि इससे हिन्दू वैभव नहीं आएगा। वैभव आता है सुंदरता रचनात्मकता और उदारता और सत्यता से।
- रवीश की रपट से
No comments:
Post a Comment