यह लेख आज के (2019-20) छात्र
आंदोलन के बारे में है जिसकी शुरुआत जामिया
मिलिया इस्लामिया से हुई और जिसे फ्रांस के 1968-69 छात्र आंदोलन से जोड़ा जा सकता है,
जब फ्रांस के छात्र और मज़दूर सत्ता, शोषण, वर्ग और भेदभाव के विरुद्ध एक हो गए थे
| क्या ये वैसा ही है जैसा की आज दिल्ली और
पुरे भारत मे हो रहा है। राजधानी दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी (Jamia
Students Protesting Against CAA) 15 दिसंबर 2019 ये तारीख भी इतिहास में दर्ज हो चुकी
है। जिस प्रदर्शन पर पुलिस ने छात्रों पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया।
आधुनिक युग के इतिहास के किसी भी दौर में, किसी भी देश में क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन में छात्रों-युवाओं की अहम भूमिका रही है। जैसे की 1968 में हुए इस आंदोलन में ग्यारह लाख कर्मचारियों और छात्रों ने हिस्सा लिया था, जो पूरे फ्रांस की जनसंख्या का 22 प्रतिशत था। यह आंदोलन दो सप्ताह चला था। जैसे दिल्ली और पुरे भारत में पुलिस और छात्रों-नागरिको के बीच जमकर झड़पें हुई वैसे ही वहा पर भी हुई थी । वहा सरकार इस दौरान पूरी तरह से पंगु हो गई थी। इस आंदोलन की शुरुआत पेरिस के विश्वविद्यालयों से हुई थी। हालात इतने बिगड़ गए थे कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति चार्ल्स डि गॉल को भाग कर जर्मनी में शरण लेनी पड़ी थी। इसीलिए फ्रांस के इतिहास में इस आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब हम क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन की बात करते हैं, तो हमारा तात्पर्य आम जनता के विभिन्न वर्गों से आने छात्रों-युवाओं से ही होता है। लेकिन यदि महानगरों के कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के कैम्पसों की बात करें तो वहाँ एकदम ग़रीब घरों के छात्र कम ही पहुँच पाते हैं।
एक सच्ची क्रान्तिकारी छात्र राजनीति का मतलब केवल फ़ीस-बढ़ोत्तरी के विरुद्ध लड़ना, कक्षाओं में सीटें घटाने के विरुद्ध लड़ना, मेस में ख़राब ख़ाने को लेकर लड़ना, छात्रवासों की संख्या बढ़ाने के लिए लड़ना, कैम्पस में जनवादी अधिकारों के लिए लड़ना या यहाँ तक कि रोज़गार के लिए लड़ना मात्र नहीं हो सकता। क्रान्तिकारी छात्र राजनीति वही हो सकती है जो कैम्पसों की बाड़े
बन्दी को तोड़कर छात्रों को व्यापक जनता के जीवन और संघर्षों से जुड़ने के लिए तैयार करे और उन्हें इसका ठोस कार्यक्रम दे। क्रान्तिकारी परिवर्तन की भावना वाले छात्रों को राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के द्वारा यह बताना होगा | ये ऐसा आंदोलन भी है जिसके मुद्दे हमारी रोज मर्रा की जिंदगी मे दखल अंदाजगी करने लगे है। चाहे
ये देश की आर्थिक मंदी हो, बेरोजगारी का साया हो, जातिवादी राजनीति हो, उद्योगिकी का
लड़खड़ाना हो, GST की नाकामयाबी हो, नोटेबंदी की सताई मार हो इन सबसे ज्यादा बहुसंख्यात
सत्तावादी अनौपचारिक नीतिया हो और पुरानी सरकारों ही नीतियों मे दोष निकलना ही इनकी
सफलता ही सीढिया की हो ।
भारत के छात्र-युवा आन्दोलन के लिए भी यह कसौटी शत-प्रतिशत सही है और आज हमें पूरी मज़बूती के साथ इस पर अमल करने की ज़रूरत है। तभी हम इस मोर्चे पर वास्तव में एक नयी शुरुआत कर पायेंगे और उसे आगे बढ़ा पायेंगे, चाहे ये CAA (CAB)
और NRC के बहाने के रूप मे सामने है आये ।
इसे इस दौर का 1968 का फ्रांस छात्र आंदोलन कहे तो क्या अतिशोक्ति नहीं है।
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